संकट में धरती: जैविक विविधता सम्मेलन के ठोस नतीजों का संदर्भ

जैविक विविधता सम्मेलन के ठोस नतीजे सामने आने में अभी काफी समय बाकी है

Updated - December 30, 2022 04:35 am IST

मिस्र में हुए जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन के पक्षकारों के 27वें सम्मेलन (कॉप27) के एक महीने बाद, इस धरती को बचाने के लिए राजनयिक अमले का विवादास्पद जमघट एक बार फिर से जैविक विविधता सम्मेलन (सीबीडी) के रूप में इस बार कनाडा के मॉन्ट्रियल में लगा। इन दोनों सम्मेलनों की जड़ें जहां 1992 के रियो शिखर सम्मेलन में तलाशी जा सकती हैं, वहीं सीबीडी को मीडिया की ओर से कहीं से भी कॉप जैसी तवज्जो नहीं मिली। इस सम्मेलन में दुनिया के किसी भी नेता और राष्ट्र प्रमुख ने बड़े – बड़े वादे नहीं किए क्योंकि सीबीडी को काफी हद तक एक ‘पर्यावरणवादी’ चिंता के तौर पर देखा जाना जारी है। ठीक वैसे ही, जिस तरह कॉप को उस वक्त तक देखा जाता रहा जबतक कि पूंजीवाद की ताकतों ने ग्रीन हाउस गैसों की आंच में धीमी गति से पकती इस धरती को नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों के जरिए अभी भी बचाए जा सकने और इससे कम से कम कुछ उद्यमियों को समृद्ध बनाए जा सकने के विचार को फिर से परिभाषित करने में कामयाबी नहीं पा ली।

अदृश्य गैसों द्वारा पैदा किए गए जलवायु संकट को समझाने में मददगार बने चक्रवातों और पिघलते ग्लेशियरों के नजारों के उलट, जैव विविधता के संकट के पीड़ितों के खुली आंखों के बिल्कुल सामने होने के बावजूद इससे होने वाला नुकसान काफी हद तक अनदेखा बना हुआ है। वर्तमान रुझानों के आधार पर संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि दुनिया की आठ पक्षी प्रजातियों में से एक प्रजाति, लगभग 34,000 पौधों की प्रजातियां और 5,200 पशु प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं। वर्तमान में कृषि कार्य में उपयोगी मुख्य पशु प्रजातियों की लगभग 30 फीसदी नस्लों के विलुप्त होने का जोखिम है। वन अधिकांश ज्ञात स्थलीय जैव विविधता के आश्रय हैं, लेकिन पृथ्वी के मूल वनों का लगभग 45 फीसदी हिस्सा समाप्त हो गया है। इनमें से ज्यादातर को पिछली सदी के दौरान साफ किया गया है। चूंकि इस विलुप्ती के अधिकांश हिस्से को प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन या तापमान में उतार-चढ़ाव के साथ सूक्ष्म रूप से जोड़ा ही नहीं गया है, इस मुद्दे को वह तकाजा नहीं मिल पाया है जिसका वह हकदार है। इस आलोक में, भारत का रुख यानी जैव विविधता को प्रभावित करने में कीटनाशकों के असर को दर्ज किए जाने के

बावजूद उनके उपयोग को कम करने और 30 फीसदी भूमि एवं समुद्र का संरक्षण करने जैसे प्रस्तावों पर कठिन लक्ष्यों को न चाहना अजीबोगरीब लगता है। खासकर तब जबकि वह खुद को संरक्षण और प्रकृति के साथ सदभाव में रहने वाले मसीहा के रूप में देखता है। भारत ने भले ही जलवायु सम्मेलनों में होने वाली बातचीत के तरीके को अपनाते हुए यह तर्क दिया है कि जैव विविधता संरक्षण के प्रति अलग-अलग देशों की जिम्मेदारी के स्तर अलग-अलग हैं (जिसके लिए अमीर देशों को वैश्विक संरक्षण प्रयासों में अधिक उदार होकर धन देने की जरूरत है), लेकिन यह बिल्कुल साफ है कि ऐसी मांगें तबतक बेमानी हैं जबतक दुनिया के तमाम देश निश्चित लक्ष्यों के लिए राजी नहीं हो जाते। जैसा कि कहा जाता है, जिस समस्या का निर्धारण नहीं हो उसे समझना संभव नहीं होता या फिर उसका हल नहीं निकाला जा सकता है। सीबीडी की कार्यकारी सचिव एलिज़ाबेथ मारुमा म्रेमा ने इस सम्मेलन में हुई वार्ताओं का वर्णन इस रूप में किया है कि इसके नतीजे “प्रकृति के लिए पेरिस जैसे क्षण” की तरह होंगे। जबकि ऐसा कुछ नहीं है। इस सम्मेलन में शामिल देशों ने 2024 तक एक ठोस रोडमैप तैयार करने पर सहमति व्यक्त की है और अमीर देशों ने 2030 तक 30 बिलियन डॉलर प्रति वर्ष देने का वादा किया है। लेकिन इस सम्मेलन के ठोस नतीजे सामने आने में अभी काफी समय बाकी है।

This editorial has been translated from English, which can be read here.

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