तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि द्वारा राज्य के विश्वविद्यालयों से संबंधित विधेयकों की मंजूरी रोके रखना और कुछ नहीं, बल्कि संवैधानिक जुल्म है। यह विधायिका द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने या नहीं देने की संविधान-प्रदत्त शक्ति का गंभीर दुरुपयोग है। मंजूरी प्रदान करना राज्य के नाम-मात्र के प्रमुख का रोजमर्रा का काम है, और इसे रोके रखने की असाधारण शक्ति का अनुचित तरीके से इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। इसके बजाय, राजभवन में विराजमान व्यक्तियों को इस वीटो का विरले ही इस्तेमाल करना चाहिए और वह भी उसी सूरत में करना चाहिए जब संवैधानिक मूल्य खुल्लमखुल्ला दांव पर लगे हों। जिन विधेयकों के अनुमोदन से रवि ने इनकार किया है, वे राज्यपाल से कुलपतियों (वीसी) को नियुक्ति करने की शक्ति छीनना और उसे राज्य सरकार में निहित करना चाहते हैं। इन विधेयकों में राज्यपाल के नामंजूर करने लायक कुछ भी नहीं है, सिवाय इसके कि वह कुलाधिपति की हैसियत से मिली शक्तियों को बरकरार रखने के अपने निहित हित की रक्षा कर सकें। राज्यपाल के पास लंबित विधेयकों के अनुमोदन में उनके द्वारा देरी पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा बिल्कुल वाजिब टिप्पणी किये जाने के बाद, इन विधेयकों को खारिज करना चिढ़कर की गयी प्रतिक्रिया प्रतीत होती है। इस पर डीएमके सरकार ने तुरंत विशेष सत्र बुलाया और उन्हीं विधेयकों को दोबारा अंगीकार किया। सवाल उठता है कि क्या यह इस विश्वास के तहत किया गया कि अगर उन्हीं विधेयकों को सदन द्वारा दोबारा विचार करके पारित किया जाता है, तो राज्यपाल उन्हें मंजूरी देने को बाध्य होंगे।
वैधानिक स्थिति यह है कि ये विधेयक कानून बन पाने में नाकाम हो गये हैं। अपने विधेयकों को खारिज किये जाने से खिन्न सदन के पास कोई संवैधानिक उपचार मौजूद नहीं है। अनुच्छेद 200 दूसरी बार पारित विधेयकों के लिए राज्यपाल की मंजूरी बाध्यकारी बनाता है। लेकिन यह प्रावधान उन विधेयकों पर लागू नहीं होता जिन्हें ‘रोके रखा गया’ हो, जिसका वास्तव में मतलब ‘खारिज किया जाना’ ही है। अगर सरकार इस स्थिति से वाकिफ थी और फिर भी उन्हें पुन: अंगीकार करने का साहस कर रही थी, तो शायद इसका मतलब यह राजनीतिक संदेश है कि वह अपने विधायी उपायों को आगे बढ़ाने के मामले में झुकेगी नहीं। उन्हें नये सिरे से पारित किये जाने के परिणामस्वरूप राज्यपाल उनके साथ नये विधेयकों की तरह सलूक कर सकते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि वह उन्हें दोबारा रोके रख सकते हैं। एक तरह से, राज्यपाल की इस कार्रवाई ने संविधान में मौजूद उस अलोकतांत्रिक और संघीय व्यवस्था-विरोधी (एंटी-फेडरल) विशेषता को उजागर करने में मदद की है जो निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा पारित विधेयकों को खारिज करने की बेलगाम शक्ति प्रदान करती है। राज्यपाल की शक्तियों से जुड़ी मौजूदा कार्यवाहियों के दौरान अपनी टिप्पणियों में, सुप्रीम कोर्ट ने इस तथ्य की ओर ध्यान खींचा है कि राज्यपाल निर्वाचित नहीं हैं। शीर्ष अदालत को इस बात का परीक्षण करना चाहिए कि क्या विधेयकों पर राज्यपाल के पास वीटो का होना उस संसदीय लोकतंत्र का उल्लंघन करता है जो संविधान की बुनियादी विशेषता है। पक्षपातपूर्ण शरारतों की संभावना समाप्त करने के लिए एक पुख्ता फैसले की जरूरत है।
Published - November 20, 2023 08:14 am IST