सनक भरी हिंसाः माओवादी हिंसा का खतरा अभी भी बना हुआ है

दक्षिण बस्तर में हुआ माओवादी हमला इस समूह की ताकत को दिखाता है

Published - April 28, 2023 11:29 am IST

इस बात को दो साल से भी कम वक्त हुआ है जब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कई राज्यों के नेताओं और प्रतिनिधियों को यह बताया था कि माओवादियों का प्रभाव, 2010 में 10 राज्यों के 96 जिलों से घटकर 2021 के अंत तक सिर्फ 41 जिलों में रह गया है। माओवादी चरमपंथ पर पैनी नजर रखने वालों ने चेताया था कि भले ही माओवादी गतिविधियों में गिरावट आई है, लेकिन अभी भी दक्षिणी बस्तर, आंध्र-ओडिशा के सीमावर्ती इलाकों और झारखंड के कुछ जिलों में माओवादी सक्रिय हैं। बुधवार को छत्तीसगढ़ पुलिस की एक डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड टीम को शक्तिशाली आईईडी विस्फोट से उड़ाने के बाद, उन पर गोलियां दागना यह दिखाता है कि दक्षिण बस्तर में माओवादियों का खतरा अभी बरकरार है। तथ्य यह है कि गुप्त सूचना मिलने के बाद ये 10 जवान एक चरमपंथ-विरोधी ऑपरेशन से लौट रहे थे। उन पर हुआ यह हमला एक चाल हो सकती है और यह खुफिया तंत्र की नाकामी की तरफ भी इशारा करता है। मानसून से पहले सुरक्षा बलों पर माओवादी इस तरह के हमले करते आए हैं। ऐसे में यह घटना बताती है कि इस हमले का आकलन करने में तंत्र नाकाम रहा। इस घटना की जांच करना, सुरक्षा की खामियों को दूर करना, हमले के लिए जिम्मेदार माओवादी कैडरों का पता लगाना और उन्हें सजा दिलाना सरकार की जिम्मेदारी है। हालांकि यह एक ऐसा काम है जिसे कहना आसान है, करना नहीं। ऐसा इसलिए, क्योंकि यह ऐसा दुर्गम इलाका है जो माओवादियों का आखिरी मजबूत गढ़ हो सकता है।

मध्य भारत के आदिवासी बहुल दूरस्थ और दुर्गम जंगली इलाकों का इस्तेमाल करते हुए हिंसक गुरिल्ला आधारित आंदोलन से आगे बढ़ने में माओवादियों की नाकामी, मुख्य रूप से उनकी उस असंगत और पुरानी विचारधारा की वजह से है जिन्हें सबसे ज्यादा वंचित समुदाय के कई लोग भी स्वीकार नहीं करते हैं। तेज सुरक्षा कार्रवाइयों की वजह से निश्चित रूप से अपने गढ़ के बाहर उनकी मौजूदगी पर अंकुश लगा है। यहां तक कि उन इलाकों में भी जहां भारतीय राज्य की पैठ और माओवादियों के असर को कम करने के लिए किए जाने वाले काम लगभग अनुपस्थित थे। ऐसी जगहों पर अब माओवादियों का प्रभाव कम हुआ है। फिर भी, दक्षिण बस्तर में माओवादियों को हराने में सिर्फ इलाके की दुर्गमता और बनावट ही बाधक साबित नहीं हुए हैं। सुरक्षा बलों और माओवादियों के बीच पिस रहे आदिवासियों के एक तबके में भी अलगाव का बोध है और माओवादियों ने उनके भीतर मौजूद असंतोष का फायदा उठाकर वहां अपनी उपस्थिति को कायम रखा है। उग्रवाद-विरोधी ऑपरेशन के दिनों में माओवादियों को हराने के लिए आदिवासियों के बीच खाई पैदा करने की कठोर रणनीतियां उल्टी साबित हुई हैं। सरकार को दक्षिण बस्तर के आदिवासियों का भरोसा जीतना होगा और उनका समर्थन हासिल करना होगा क्योंकि माओवादी आंदोलन को शिकस्त देने का यही सबसे ठोस तरीका है। बदले की भावना से हड़बड़ी में की गई कोई भी ऐसी सैन्य कार्रवाई जिसमें निर्दोष आदिवासियों को निशाना बनाया जाए, इस समस्या को और बढ़ाएगी।

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