जल संसाधन मंत्रालय ने हाल ही में एक रिपोर्ट जारी की है जिसमें भारत में भूजल की स्थिति का ब्योरा दिया गया है। मोटे तौर पर देखें, तो खबर अच्छी है: पूरे देश के लिए कुल वार्षिक भूजल रिचार्ज या भूजल भंडार 437.60 बिलियन क्यूबिक मीटर (बीसीएम) है, जिसमें से निकाली गई मात्रा 239.16 बीसीएम थी। वर्ष 2020 में इसी तरह के एक आकलन में पाया गया था कि उस वक्त सालाना भूजल रिचार्ज 436 बीसीएम था और 245 बीसीएम जल की निकासी हुई थी। वर्ष 2017 में रिचार्ज 432 बीसीएम और निकासी 249 बीसीएम थी। वर्ष 2022 के आकलन से पता चलता है कि 2004 के 231 बीसीएम के बाद, यह निकाले गए भूजल की न्यूनतम मात्रा है। भूजल निकासी में कमी, बेहतर जल प्रबंधन का संकेत दे सकती है, लेकिन ‘भारत के गतिशील भूजल संसाधनों का राष्ट्रीय संकलन’ नामक यह रिपोर्ट खुद कहती है कि सुधार सिर्फ ‘मामूली’ है और यह प्राकृतिक परिस्थितियों में आए बदलावों या फिर केंद्रीय भूजल बोर्ड और इस सर्वे को अंजाम देने वाले राज्यों की कार्यप्रणाली में हुए बदलावों का नतीजा हो सकती है। आकलन में इस्तेमाल हुए भूजल ब्लॉक की संख्या, बीते साल की तुलना में ज्यादा थी, लेकिन जिन ब्लॉक में भूजल के प्रतिशत को ‘गंभीर रूप से कम’ बताया गया वह बीते साल के लगभग बराबर, यानी 14 फीसदी थी।
पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ऐसे भूजल ब्लॉक की संख्या सबसे ज्यादा है, जिसमें पानी ‘गंभीर रूप से कम’ है। इन इलाकों में भूजल को रिचार्ज करने की तमाम कोशिशों के बावजूद, अंधाधुंध निकासी ने जल स्तर को और गिरा दिया है। इस सूची में अगले नाम राजस्थान और गुजरात के हैं, जहां शुष्क जलवायु की वजह से भूजल रिचार्ज सीमित है। फिर, कर्नाटक, तमिलनाडु, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों का नंबर आता है, जहां पानी को रोकने वाली चट्टानों या मिट्टी की परतों के क्रिस्टलाइन होने की वजह से भूजल उपलब्धता कम है। निष्कर्ष का यह एक बना-बनाया ढर्रा है कि भूजल के संरक्षण के लिए और भी बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है। भूजल के उपयोग को नियंत्रित करने के लिए कोई केंद्रीय कानून नहीं है और इसकी निकासी को लेकर अलग-अलग राज्यों ने अपने-अपने हिसाब से अलग-अलग कानून बना रखा है। राष्ट्रीय जल नीति के मसौदे की सिफारिश में कहा गया है कि पानी की ज्यादा खपत वाली फसलों के बजाय दूसरी फसलों की पैदावार करने पर ध्यान दिया जाए और
औद्योगिक इस्तेमालों में मीठे पानी के बजाय शोधित (रिसाइकल) किए गए पानी को प्राथमिकता दी जाए। पानी को मुफ्त और निजी संसाधन मानने के बजाय ऐसा संसाधन माना जाना चाहिए जिसकी लागत का आकलन हो और उसे समान रूप से वहन किया जाए। भारत में पानी एक राजनीतिक विवाद का मुद्दा रहा है, लेकिन जलवायु संकट की वजह से इस बहुमूल्य संसाधन की अंधाधुंध खपत को कम करने की दिशा में राजनीतिक गलियारों में आम सहमति बन सकती है।
This editorial was translated from English, which can be read here.