भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के नए रॉकेट, लघु उपग्रह प्रक्षेपण यान (एसएसएलवी) के पहले प्रक्षेपण से जुड़ा जोश जल्द ही निराशा में तब्दील हो गया। इसकी वजह यह रही कि जिन उपग्रहों को लेकर यह यान जा रहा था, वे वांछित कक्षाओं में स्थापित होने में विफल रहे और खो गए। एक असफल मिशन के बाद विरक्त हो जाने और चुप्पी साधने की परंपरा को तोड़ते हुए, इसरो ने इस बात का विवरण पेश किया कि क्यों ये उपग्रह बिना कोई समय गंवाए खो गए। अपने ठोस प्रणोदकों के साथ एसएसएलवी रॉकेट के तीन चरणों ने अपेक्षित प्रदर्शन किया और निर्धारित प्रक्षेपवक्र के जरिए बाकी के चरणों को आगे बढ़ाने के लिए सुचारू रूप से अलग हुआ। हालांकि, अंतिम चरण में, एक सेंसर में खराबी आने की वजह से इस प्रक्षेपण यान द्वारा ले जाए गए उपग्रह निम्न-पृथ्वी वाले हिस्से की 356 किलोमीटर लंबी गोलाकार कक्षा में स्थापित होने के बजाय एक अण्डाकार कक्षा में चले गए। एक अण्डाकार कक्षा को उसके लंबे और छोटे अक्षों द्वारा ठीक उसी तरह परिभाषित किया जाता है, जैसे एक वृत्त को उसकी त्रिज्या से परिभाषित किया जाता है। उक्त अण्डाकार कक्षा का लघु अक्ष आकार में छोटा था और इन उपग्रहों की ऊंचाई पृथ्वी से महज लगभग 76 किलोमीटर ऊपर थी। इस ऊंचाई पर, वायुमंडलीय खिंचाव एक उपग्रह को आगे बढ़ने में बाधा पैदा करता है और अगर उसे एक बड़ा प्रणोद (धक्का) प्रदान नहीं किया जाता है, तो वह अपनी ऊंचाई खो देता है और पृथ्वी पर गिर जाता है, संभवतः जल जाता है। कुल मिलाकर, वह अनिवार्य रूप से नियंत्रण कक्ष की नजरों से ओझल हो जाता है। एसएसएलवी द्वारा ले जाए गए दो उपग्रहों के साथ भी ऐसा ही हुआ।
एसएसएलवी को ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान (पीएसएलवी) के बाद इसरो की अगली कार्योपयोगी प्रक्षेपण रॉकेट के रूप में आगे बढ़ाया गया। केवल दो मीटर व्यास और 35 मीटर की ऊंचाई वाला यह प्रक्षेपण यान वाकई पीएसएलवी से छोटा होता है जिसका उपयोग व्यापक श्रेणी के उपग्रहों को स्थापित करने में किया जाता है। यह तथ्य कि पीएसएलवी भी छोटे उपग्रहों को अंतरिक्ष में ले जाते हैं, थोडा सा अतिवादी है। 500 किलोग्राम तक के द्रव्यमान वाले उपग्रहों को पीएसएलवी के बजाय एसएसएलवी का इस्तेमाल करके भेजा जा सकता है। एसएसएलवी में ठोस प्रणोदकों का इस्तेमाल होता है और ये पीएसएलवी के तरल प्रणोदक वाले चरणों की तुलना में अधिक किफायती और संभालने में आसान होते हैं। एसएसएलवी में कई उपग्रहों का प्रक्षेपण करने की क्षमता होती है और मांग के हिसाब से इसके जरिए कई उपग्रहों को प्रक्षेपित किया जा सकता है - क्योंकि इस रॉकेट को प्रक्षेपण के लिए न्यूनतम बुनियादी ढांचे की जरूरत होती है। ये सारी खूबियां इसे वाणिज्यिक रूप से पृथ्वी के अवलोकन और संचार संबंधी कार्यों के लिए बेहद आकर्षक बनाती हैं। रणनीतिक रूप से भी, प्रक्षेपित किए जाने वाले अलग – अलग द्रव्यमान वाले उपग्रहों को अलग - अलग श्रेणियों में रखना मुफीद रहता है। यह सही है कि इस बार सफलता नहीं मिली और 135 किलोग्राम का पृथ्वी का अवलोकन करने वाला उपग्रह ईओएस-02 और आठ किलोग्राम का नैनो उपग्रह, आजादीसैट, दोनों खो गए। लेकिन इस कड़ी में इसरो के अध्यक्ष एस. सोमनाथ का सीधा संवाद और सभी संबद्ध पक्षों के लाभ के लिए इस प्रक्षेपण से जुड़े प्रारंभिक विश्लेषण को शीघ्र उपलब्ध कराया जाना सबसे खास था। सभी जानते हैं कि दुनिया भर की अंतरिक्ष एजेंसियां परीक्षण के क्षेत्र में भारत की तुलना में बहुत अधिक निवेश करती हैं। भारत का यह रवैया, जोकि किफायत बरतने वाला प्रतीत होता है, कई मौकों पर महंगा साबित हो सकता है। ऐसे हालातों में सफलता उल्लेखनीय होती है और असफलता एक ऐसा सबक होती है, जिसकी कीमत चुकानी पड़ती है।
This editorial in Hindi has been translated from English which can be read here.
Published - August 10, 2022 10:27 am IST