उत्तर प्रदेश में पत्रकार सिद्दीक कप्पन को लंबे समय तक जेल में रखना, एक ऐसी व्यवस्था के लिए भी बेहद द्वेषपूर्ण उदाहरण है, जहां किसी व्यक्ति पर झूठे मामले थोपना असामान्य नहीं होता। कुछ हल्की शर्तों के अधीन जमानत पर उनकी रिहाई का आदेश सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कई सवाल उठाए और गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम में जमानत को अस्वीकर करने के नियम को दरकिनार कर दिया। साथ ही, कहा कि उन्हें और ज्यादा हिरासत में रखने का कोई कारण नहीं है। श्री कप्पन को अक्टूबर 2020 में गिरफ्तार किया गया था, जब वह हाथरस जा रहे थे। वहां एक दलित लड़की की सामूहिक बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई थी। चौंकाने वाले अंदाज में उन पर उस इलाके में विभाजनकारी अभियान चलाने का आरोप लगाकर गिरफ्तार किया गया, जिसे उस घटना के ऊपर सार्वजनिक आक्रोश से ध्यान हटाने वाला और सांप्रदायिक नजरिए वाले सिद्धांत को गढ़ने की कोशिश के रूप में ही समझा जा सकता है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि उन्हें लंबे समय तक जेल में रखा जाए, पुलिस ने आतंकवाद विरोधी कानून के प्रावधानों का इस्तेमाल किया। इन प्रावधानों में से एक, आतंकवादी गतिविधियों के लिए धन जुटाने और इन घनटाओं को अंजाम देने की साजिश से जुड़ा था। इसके अलावा, दो समुदायों के बीच वैमन्स्यता फैलाने और धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने से जुड़े आरोप भी लगाए गए। उन्हें पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया का सदस्य बताया गया। उन्हें फंसाने के लिए, पीड़ित के लिए न्याय की मांग करने वाले पर्चे और अंग्रेजी में लिखे गए कुछ साहित्य (जो संयुक्त राज्य अमेरिका में ‘ब्लैक लाइव्स मैटर‘ मामले पर विरोध प्रदर्शन के लिए इस्तेमाल के लिए अंग्रेजी में लिखे गए निर्देश थे) को सामग्री के रूप में पेश कया गया।
भारत के मुख्य न्यायाधीश यू. यू. ललित की खंडपीठ को इसका श्रेय जाता है कि उसने यूएपीए की धारा 43 डी (5) का हवाला नहीं दिया, जिसका आम तौर पर जमानत रद्द करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। अगर अदालत को यह लगता है कि आरोपी के खिलाफ आरोप प्रथम दृष्टया सच है, तो इस धारा में जमानत देने पर कानूनी रोक का प्रावधान है। वर्ष 2019 के एक फैसले में कहा गया था कि जमानत के स्तर पर सबूतों के विस्तृत विश्लेषण की जरूरत नहीं है। हालांकि, किसी मामले के तथ्यों पर सामान्य नजरिए से जमानत के सवाल की तह तक बेहतर तरीके से पहुंचा जा सकता है। अदालत ने मौखिक रूप से यह पूछकर पूरे मामले की बुनियाद को हिला दिया कि किसी पीड़ित के लिए न्याय के पक्ष में आवाज उठाना अपराध कैसे हो सकता है और कोई व्यक्ति किसी दूसरे देश के मामले के विरोध में अंग्रेजी में लिखे गए पर्चे का उपयोग सांप्रदायिक हिंसा भड़काने के लिए कैसे कर सकता है। जमानत का यह आदेश दर्शाता है कि न्यायाधीश कैसे एक साफ नजरिए की बदौलत, अधिकारियों और राजनीतिक नेताओं के इस यकीन को नेस्तनाबूद कर सकते हैं कि आतंकवाद विरोधी कानून लगाकर वे बिना किसी आधार के किसी व्यक्ति को लंबे समय तक जेल में रख सकते हैं। साथ ही, यह न्यायपालिका की खामियों को भी दर्शाता है कि सिद्दीक कप्पन की रिहाई सुनिश्चित कराने में अदालतों को दो साल लग गए। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि इस आदेश से निचली अदालतों तक यह संदेश जाएगा कि पुलिस को कड़े कानूनों का इस्तेमाल करके लोगों को सताने की अनुमति किस तरह अदालतों को नहीं देनी चाहिए।
This editorial has been translated from English which can be read here.
Published - September 12, 2022 01:31 pm IST