तेलंगाना के जगतियाल निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले विधायक एम. संजय कुमार के भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) से पाला बदलकर सत्तारूढ़ कांग्रेस में जाने के साथ ही राज्य विधानसभा में मुख्य विपक्ष की ताकत 39 से घटकर 33 हो गई है। यह सच है कि इस किस्म के दलबदल ने भारत को त्रस्त कर दिया है और 2014 में अपनी स्थापना के बाद से तेलंगाना सहित कई राज्य बड़े पैमाने पर दलबदल के गवाह बने हैं। कुल 119 विधानसभा सीटों में से 63 सीटें जीतने के बावजूद, तेलंगाना के पहले मुख्यमंत्री और भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) के मुखिया के.चंद्रशेखर राव राजनीतिक विपक्ष में तबतक एक के बाद एक दलबदल की घटना को अंजाम देते रहे, जब तक कि वह 90 विधायकों का भारी बहुमत हासिल करने और 2018 में अपने पहले कार्यकाल के अंत तक तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) की राज्य इकाई को नेस्तनाबूद में कामयाब नहीं हो गए। इस किस्म के दलबदल, वर्तमान मामले की तरह, भारत के 1985 के दलबदल विरोधी कानून की 10वीं अनुसूची का उल्लंघन करते हैं। दलबदल कानून को 2003 में इस आशय के साथ संशोधित किया गया था कि अगर दलबदल का इरादा रखने वाले किसी पार्टी के दो-तिहाई सदस्य सदन में एक अलग गुट बनाते हैं और उस गुट का किसी अन्य पार्टी में विलय कर लेते हैं तो उन्हें अयोग्य ठहराये जाने को अपवाद बनाया जा सके। यह नियम और सदस्यों की अयोग्यता के संबंध में बिना किसी निर्धारित समय सीमा के निर्णय करने की पूर्ण शक्ति विधानसभा अध्यक्ष और विधान परिषद के सभापति में निहित होने की व्यवस्था अक्सर इस कानून को बेजान बना देती है। तेलंगाना विधानसभा के अध्यक्ष सत्तारूढ़ पार्टी के विकाराबाद विधायक गद्दाम प्रसाद कुमार हैं। जहां उन्हें सैद्धांतिक लोकतांत्रिक प्रथाओं को बढ़ावा देने के हित में काम करना चाहिए, वहीं विभिन्न राज्यों या केंद्र में सदन के अध्यक्ष (स्पीकर) शायद ही कभी अपनी पार्टी के निर्देशों से ऊपर उठे हों।
श्री कुमार के दलबदल ने खासतौर पर कांग्रेस में कुछ बेचैनी पैदा कर दी है, क्योंकि इससे जगतियाल विधानसभा सीट हारने वाले उम्मीदवार टी. जीवन रेड्डी को झटका लगा है। रेड्डी फिलहाल कांग्रेस के विधान परिषद सदस्य (एमएलसी) हैं। तेलंगाना के मुख्यमंत्री ए. रेवंत रेड्डी पर अतीत में दलबदल का प्रयास करने का आरोप लगता रहा है। सबसे कुख्यात घटना 2015 की थी - जब वह टीडीपी के सदस्य थे और उनपर टीडीपी के पक्ष में मतदान करने के लिए सदन के एक मनोनीत सदस्य एल्विस स्टीफेंसन को रिश्वत देने का प्रयास करने का आरोप लगाया गया था। ऐसे दलबदल सहभागी लोकतंत्र की भावना के खिलाफ हैं, जहां एक मजबूत विपक्ष की मौजूदगी शासन के स्तर को ऊंचा उठाती है और सत्तारूढ़ सरकार द्वारा लिए गए एकतरफा फैसलों पर अंकुश लगाती है। नई दिल्ली और हैदराबाद, दोनों जगहों के पिछले 10 सालों के अनुभवों ने प्रचंड बहुमत वाली पार्टियों के खतरों को स्पष्ट कर दिया है। वर्ष 2024 में केंद्र में एक अपेक्षाकृत मजबूत विपक्ष होने की पृष्ठभूमि में, शायद दल-बदल विरोधी कानून में और ज्यादा संशोधन की मांग करने का वक्त आ गया है। सदस्यों की अयोग्यता के बारे में निर्णय लेने के वास्ते अध्यक्षों और सभापतियों के लिए समय-सीमा निर्धारित करना काफी नहीं हो, लिहाजा इस बारे में निर्णय लेने की शक्ति एक स्वतंत्र चुनाव आयोग में निहित होनी चाहिए।