‘कुत्ते ने आदमी को काटा’- खबरें लिखने का बुनियादी नियम यह है कि ऐसी घटनाओं को खबर नहीं माना जाता है। फिर भी लगभग 1.5 करोड़ आवारा कुत्तों की आबादी (2019 पशुधन गणना के अनुसार) के चलते कुत्ते काटने और रेबीज के मामले में दुनिया की राजधानी होने के संदिग्ध गौरव के साथ भारत के मीडिया में लगातार ‘आवारा कुत्तों का खतरा’ सुर्खियों में रहता है। इसके बावजूद इन खबरों के प्रति समाज बेसुध बना रहता है। कभी-कभार यह जड़ता कुछ भयावह घटनाओं के साथ टूट जाती है। जैसे, राजस्थान के एक अस्पताल में एक शिशु को आवारा कुत्ते कथित तौर पर खींच कर ले गए, जबकि तेलंगाना में आवारा कुत्तों ने चार साल के एक बच्चे पर हमला किया था जो सीसीटीवी कैमरे में कैद हो गया। दोनों घटनाएं केवल एक झलक हैं। राज्यों, केंद्र, न्यायपालिका, नगरपालिकाओं और गैर-सरकारी संगठनों द्वारा इस संकट की स्वीकृति के बावजूद यह समस्या बढ़ती ही जा रही है।
कुत्तों का मानव के विकासक्रम के साथ साहचर्य का एक अनूठा संबंध रहा है। यह उनके कल्याण के लिए जिम्मेदार होने की नैतिक दुविधा इंसान के सामने पैदा करता है, लेकिन इसके अपने खतरे भी हैं क्योंकि कुत्तों का विकास भेड़िये और उसकी प्रवृत्ति से जुड़ा है। भारत के लिए भले ही यह एक अबूझ पहेली हो, लेकिन बाकी दुनिया के अधिकांश हिस्सों ने आवारा जानवरों के अधिकारों को मान्यता नहीं दी है। यदि ऐसे पशुओं को पट्टे से बांध कर रखा जाता है और पंजीकृत किया जाता है, तो उसे पालने वाले उसकी देखभाल करने के लिए बाध्य माने जाते हैं। यदि ऐसा नहीं है, तब अंतिम उपाय के रूप में राज्य सार्वजनिक स्वास्थ्य के हित में उन्हें मार देने के लिए बाध्य है। पशु क्रूरता निवारण (पीसीए) अधिनियम और पशु जन्म नियंत्रण (कुत्ते) नियम, 2001 (अद्यतन किया जा रहा है) का उद्देश्य आवारा पशुओं की आबादी को सीमित करना है लेकिन सार्वजनिक सुरक्षा में सुधार में इनका कोई लाभ नहीं होता। प्रस्तावित मसौदा नियम, या पशु जन्म नियंत्रण नियम, 2022, नसबंदी और टीकाकरण में केवल प्रक्रियात्मक बदलावों को सामने रखते हैं, केवल “लाइलाज बीमार और घातक रूप से घायल” कुत्तों को ही मारने की इजाजत देते हैं, और रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशनों को अपने इलाके के में आवारा जानवरों को खिलाने का जिम्मेदार मानते हैं। पीसीए और एबीसी के नियम यह स्वीकार करते हैं कि अनियंत्रित आवारा कुत्तों को रोका जाना चाहिए, हालांकि यह समस्या की भयावहता के लिहाज से मायने नहीं रखता क्योंकि प्रत्येक 100 भारतीयों पर लगभग एक आवारा पशु है। सबसे
कमजोर (गरीब और उनके बच्चे) आदमी की उपचार तक पहुंच सुनिश्चित करने के लिहाज से भारत में बुनियादी ढांचे और तंत्र की कमी है। ऐसे मे, नसबंदी और टीकाकरण के साथ कुत्तों की संख्या कम होने की उम्मीद करना एक कोरी कल्पना है। भारत ने 2030 तक रेबीज को खत्म करने की प्रतिबद्धता जताई है, लेकिन आवारा कुत्तों से खतरे को सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट के रूप में जब तक सबसे पहले मान्यता नहीं दे दी जाती तब तक भारत के निर्धनतम लोग सुस्त नारेबाजी की बलिवेदी पर सुरक्षित सार्वजनिक स्थानों पर अपने अधिकार से महरूम होते रहेंगे।
This editorial has been translated from English, which can be read here.