पिछले हफ्ते गृह मंत्री अमित शाह का इंजीनियरिंग, मेडिसिन और कानून को मातृभाषा में पढ़ाए जाने के आह्वान का मकसद बहुत ही अच्छा है। उनका बयान राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 के केंद्रीय बिंदुओं में से एक के अनुरूप है। यह बिंदु है- उच्च शिक्षा में भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देना। दो भाषाओं में पढ़ाई की पेशकश के अलावा एनईपी, उच्च शिक्षा में ज्यादा से ज्यादा शैक्षिणिक संस्थानों और विषयों में मातृभाषा या स्थानीय भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने की बात करता है। शाह के आह्वान के पीछे तर्क यह है कि मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा हासिल करने वाले 95 फीसदी छात्र-छात्राओं को भाषाई बाधा की वजह से उच्च शिक्षा से वंचित नहीं रखा जा सकता। अगर दिसंबर 2021 में लोकसभा में केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान के दिए बयान को संकेत माना जाए, तो हाल के वर्षों में भारतीय भाषाओं में इंजीनियरिंग की पढ़ाई की सुविधा उपलब्ध कराने के लिए कई ठोस उपाय किए गए हैं। 2021-22 के लिए, एआईसीटीई ने 10 राज्यों के 19 इंजीनियरिंग कॉलेजों को छह भारतीय भाषाओं में इंजीनियरिंग पाठ्यक्रम चलाने की मंजूरी दी। परिषद ने एक “एआईसीटीई ट्रांसलेशन ऑटोमेशन एआई टूल” भी विकसित किया है, जो अंग्रेजी के ऑनलाइन पाठ्यक्रमों को 11 भारतीय भाषाओं में अनुवाद करता है। केंद्र सरकार के मुक्त ऑनलाइन पाठ्यक्रम के मंच ‘एस डब्लू ए वाय ए एम- स्वयं’ में भी भारतीय भाषाओं में कुछ ऑनलाइन पाठ्यक्रम उपलब्ध है। यह इसलिए अहम है क्योंकि इसका मकसद है कि उच्च शिक्षा में सभी वर्गों को शामिल करने के लक्ष्य को हकीकत में बदला जाना चाहिए। लेकिन, हमें इस सच्चाई से मुंह नहीं चुराना चाहिए कि इससे कोई ठोस नतीजे हासिल नहीं हुए। मिसाल के लिए, तमिलनाडु में तमिल माध्यम से इंजीनियरिंग की शिक्षा उपलब्ध कराने की कोशिश का कोई खास असर नहीं हुआ। वह भी तब, जब वहां के प्रमुख राजनीतिक दल भाषा को राजनीतिक उपकरण के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। कानून की पढ़ाई भारतीय भाषाओं में शुरू करने से पहले, केंद्र सरकार को इस दिशा में कोशिश करनी चाहिए कि न्यायपालिका पहले भारतीय भाषाओं में अदालती कार्यवाही शुरू करने को मंजूरी दे।
भारतीय भाषाओं में शैक्षणिक सामग्री उपलब्ध कराने में हड़बड़ी मचाने की कोई जरूरत नहीं है। अलबत्ता, इस विषय में राजनीतिक दबाव या हस्तक्षेप के बिना नीति निर्माताओं और शिक्षाविदों से कार्यप्रणाली और तौर-तरीकों को लेकर चर्चा की जानी चाहिए। यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि जहां जरूरी हो वहां अंग्रेजी का इस्तेमाल पहले की तरह जारी रहे। इस आधार पर कोई विरक्ति नहीं दिखाई जानी चाहिए कि यह एक “विदेशी” भाषा है। यहां, स्कूलों में भारतीय भाषाओं में होने वाली पढ़ाई के मानकों और गुणवत्ता के मुद्दों को उजागर करना अनुचित नहीं होगा। चाहे गुजराती हो, हिंदी हो या फिर तमिल, सरकारी परीक्षाओं में इन्हीं भाषाओं की परीक्षा में कई बार छात्र-छात्राओं को फेल होते पाया गया है। भाषाई इलाके के बाहर कम रोजगार मिलने की गुंजाइश की बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। अगर सरकार उच्च शिक्षा तक कुछ खास वर्गों की पहुंच सुनिश्चित कराने की अपनी घोषित स्थिति को लेकर वाकई गंभीरता से आगे बढ़ना चाहती है, तो उसे इसके फायदे और नुकसान का निष्पक्ष अध्ययन भी करना चाहिए।
This editorial in Hindi has been translated from English which can be read here.
Published - August 02, 2022 09:12 am IST